Mirza Ghalib येसी शक्सिसत जिसे हर कोई जनता है | एक यैसे महान शायर जिन्होंने लोगो का शायरी के प्रति नजरिया ही बदल दिया | इस पोस्ट में हम आपके लिए लेकर आहे मिर्ज़ा ग़ालिब की कुछ बोहोत बेहतरीन शायरी या. आशा है की आपको ये जरुर पसंद आएगी
मिर्ज़ा ग़ालिब (२७ दिसम्बर १७९७ -१५ फरवरी १८६९) के दो तखल्लुस, असद् (शेर) और ग़ालिब (बलवान) थे । वह उर्दू और फ़ारसी के महान कवि थे। उर्दू भाषा का सर्वकालिक महान शायर माना जाता है और फ़ारसी कविता के प्रवाह को हिन्दुस्तानी जबान में लोकप्रिय करवाने का श्रेय भी इनको दिया जाता है। उनके पिता मिर्ज़ा अब्दुला बेग खां १८०३ ई: में अलवर की लड़ाई में मारे गए। उन के चाचा मिर्ज़ा नसरुल्ला बेग खां ने उनको पाला। १३ साल की उम्र में उन की शादी नवाब इलाही बख़श की बेटी उमराव बेग़म के साथ हुई। उन के सात के सात बच्चे बचपन में ही मर गए। उन की कविता का मुख्य विचार है कि जीवन दर्द भरा संघर्ष है, जो इस के अंत के साथ ही ख़त्म होता है । उनको १८५४ में बहादुर शाह ज़फ़र ने काव्य-गुरू बनाया । वह नरम ख़्याली रहस्यवादी थे। उन का यकीन था कि ईश्वर की अपने अंदर से खोज साधक को इस्लाम की कट्टरता से मुक्त कर देती है। उन की सूफ़ी विचारधारा के दर्शन उन की कवितायों और ग़ज़लों में होते हैं। गालिब के नज़दीक के विरोधी ज़ौक थे। परन्तु दोनों एक दूसरे की प्रतिभा की इज्जत करते थे। वह दोनों मीर तकी मीर के भी प्रशंसक थे। मोमिन और दाग़ भी उन के समकालीन थे।
Mirza Ghalib Shayari
“आशिक़ हूँ प माशूक़-फ़रेबी है मिरा काम
मजनूँ को बुरा कहती है लैला मिरे आगे”
― Mirza Asadullah Khan Ghalib
“अगले वक़्तों के हैं ये लोग इन्हें कुछ न कहो
जो मय ओ नग़्मा को अंदोह-रुबा कहते हैं”
― Mirza Asadullah Khan Ghalib
“मुहब्बत थी चमन से, लेकिन अब ये बेदिमाग़ी है
के मौज-ए-बू-ए-गुल से नाक में आता है दम मेरा”
― Mirza Ghalib
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है।
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है।।
― Mirza Ghalib
“रोने से और इश्क़ में बेबाक हो गये,
धोये गये हम ऐसे कि बस पाक हो गये.
कहता है कौन नाला-ए-बुलबुल को बे-असर,
परदे में गुल कि लाख जिगर चाक हो गये.
करने गये थे उससे तग़ाफ़ुल का हम गिला,
की एक ही निगाह कि बस ख़ाक हो गये.
इस रंग से उठाई कल उसने असद की लाश,
दुश्मन भी जिसको देखके ग़मनाक हो गये.”
― Mirza Ghalib
“शराब पीने दे मस्जिद में बैठ कर,
या वह जगह बता जहाँ खुदा नहीं..”
― Mirza Ghalib
काबा किस मुँह से जाओगे ‘ग़ालिब’।
शर्म तुम को मगर नहीं आती।।
― Mirza Asadullah Khan Ghalib
बेवजह नहीं रोता इश्क़ में कोई ग़ालिब
जिसे खुद से बढ़कर चाहो वो रूलाता ज़रूर है
― Mirza Ghalib
बेसबब मुस्कुरा रहा है चाँद
कोई साजिश छुपा रहा है चाँद
― Mirza Ghalib
बेचैन इस क़दर था कि सोया न रात भर
पलकों से लिख रहा था तेरा नाम चाँद पर
― Mirza Asadullah Khan Ghalib
इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश ‘ग़ालिब‘
कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे
― Mirza Ghalib
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